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कविता

नौकरी एक चुड़ैल

घनश्याम कुमार देवांश


नौकरी मेरी पीठ पर लदकर घर चली आती है
वो मेरे साथ सोफे पर पसर जाती है
जब मेरी उँगलियाँ जूतों के फीते टटोलती हैं
वो एक चुड़ैल की तरह मेरी आत्मा में उतर जाती है
वह मेरे पैर की पिंडलियों में मोजों के दबाव वाले
गहरे गोल चकत्ते बनाती है
उस वक्त मैं अपने पैर चूमना चाहता हूँ लेकिन
मेरे होंठ वहाँ तक नहीं पहुँचते
चुड़ैल शामियाने ढहाने वाले
कुशल मजदूर की तरह मेरे शरीर
का हर मोड़ ढीला करती जाती है
और मैं सोफे में धँसता चला जाता हूँ
सहसा सोफा एक कब्र हो जाता है
मैं डर से चीखता हूँ
मेरी बीवी किचन से पानी का
गिलास छोड़कर दौड़ती है
बिटिया बालकनी से स्कूल डायरी
फेंककर भागती है मेरी तरफ
वे मुझे समेट लेते हैं
चुड़ैल अपने काले पंख पसारे उड़ जाती है
और जाकर बिजली के खंभे पर उल्टा लटक जाती है
डिनर के प्राइम टाइम में
एक कोरस बजता है जिसमें एक सरदार वाहियात
चुटकुलों पर आँखें भींचकर ठहाके लगाता है
एक अभी-अभी पैदा हुआ युद्धा
अपने पिता के साम्राज्य को बचाने की तरकीबें गढ़ता है
और एक मॉडल अपने शरीर को चमकदार
व मुलायम बनाए रखने के नुस्खे बताती है
इस सबसे अलग मेरी बिटिया
मेरी रीढ़विहीन पीठ पर बैठकर पूरी दुनिया का
एक चक्कर लगाना चाहती है
जबकि मेरी बीवी मेरे सीने पर
अपना चेहरा धँसाकर मुझसे अपना दिन बाँटना
चाहती है
लेकिन चुड़ैल खंभे से तयशुदा
समय पर उतर आती है
और लाल-हरी बत्तियों के रूप में
जगमगाती है एक चेतावनी की तरह
मैं घबरा जाता हूँ
बीवी का हाथ कंधे से और बिटिया का सिर अपनी गोद से
हटा देता हूँ
मैं आधी-आधी रात जागता हूँ
चुड़ैल को अपनी गोद में सँभाले
मैं उसे रात के तीसरे पहर तक साधना सीखता हूँ
हर रोज जिंदा रहने के लिए
 


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